Sonjuhi - A Poem by Sumitranandan Pant
Sonjuhi |
सोनजुही की बेल नवेली
एक वनस्पति वर्षहर्ष से खेलीफूली-फैली
सोनजुही की बेल नवेली!
आंगन के बाड़े पर चढ़कर
दारुखंभ को गलबाँही भर
कुहनी टेक कंगूरे पर
वह मुस्काती अलबेली!
सोनजुही की बेल छबीली!
दुबली-पतली देह लतर, लोनी लम्बाई
प्रेम डोर-सी सहज सुहाई!
फूलों के गुच्छों से उभरे अंगों की गोलाई
निखरे रंगों की गोराई
शोभा की सारी सुघराई
जाने कब भुजगी से पाई!
सौरभ के पलने में झूली
मौन मधुरिमा में निज भूली
यह ममता की मधुर लता
मन के आंगन में छाई!
सोनजुही की बेल लजीली!
पहिले अब मुस्काई!
एक टांग पर उचक खड़ी हो
मुग्धा वय से अधिक बड़ी हो
पैर उठा कृश पिंडुली पर धर
घुटना मोड़, चित्र बन सुन्दर
पल्ल्व देही से मृदु मांसल
खिसका धूप-छाँह का ऑंचल
पंख सीप के खोल पवन में
वन की हरी परी आंगन में
उठ अंगूठे के बल ऊपर
उड़ने को अब छूने अम्बर!
सोनजुही की बेल हठीली
लटकी सधी अधर पर!
झालरदार गागरा पहने
स्वर्णिम कलियों के सज गहने
बूटे कढ़ी चुनरी फहरा
शोभा की लहरी-सी लहरा
तारों की-सी छाँह साँवली
सीधे पग धरती न बावली
कोमलता के भार से मरी
अंग-भंगिमा भरी, छरहरी!
उदि्भद जग की-सी निर्झरिणी
हरित नीर, बहती-सी टहनी!
सोनजुही की बेल
चौकड़ी भरती चंचल हिरनी!
आकांक्षा-सी उर से लिपटी
प्राणों के रज तम से चिपटी
भू-यौवन की-सी अंगड़ाई
मधु स्वप्नों की-सी परछाई
रीढ़ स्तंभ का ले अवलंबन
धरा चेतना करती रोहण
आ:, विकास-पथ पर भू-जीवन!
सोनजुही की बेल,
गंध बन उड़ी, भरा नभ का मन!
Image Credit: Shubhada Nikharge
Sonjuhi - A Poem by Sumitranandan Pant
Reviewed by AkS
on
6:28 PM
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